- संतुलनThursday, April 05, 2012
- शिवसालोक्या Friday,
June 08, 2012
- महाशिवरात्रि का अंतर्दर्शनTuesday, December
25, 2012
- काशीFriday, January 25, 2013
- महाशिवरात्रिFriday, February 22, 2013
|
शिवसालोक्या
तब बुद्धेश ने कहा – “आज मेरा उपवास है|“
माह ने बुद्धेश की और देखते हुए प्रश्न पूछा,
“खा लोगे तो क्या बिगड़ेगा?“
बुद्धेश ने कहा – “क्यों पाप में डालते हो|”
तब महा हस्ते हुए बोला - कैसा पाप? एवं यह उपवास क्यों? तब बुद्धेश ने खीज कर उत्तर
दिया –
“तुम्हारी कशी के ही एक भूखे शिकारी ने पूरी शिवरात्रि बिल्व वृक्ष के ऊपर बिताई थी|
दिन भर कि भूख-प्यास से उपवास सहज ही हो गया था ई संयोग से रात्रि के चार पहर मे ऒस
कण से भीगे बिल्व पत्र, उस वृक्ष के निचे स्थित प्राचीन
शिव लिंग पर लिंग पर उसके हाथों से गिर पड़े थे एवं उस हत्यारे को भी शिवलोक
प्राप्त हुआ था | फिर हम तो त्रयम्बकेश्वर मे है, वह भी महाशिवरात्रि
को| तो मैं क्यों उपवास न करूँ?”
इस पर महा ने हँसकर कहा –
“अब तुम इस“अब तुम इस कथा की यथार्थाता भी जान लो| सारी पौराणिक कथाएँ कबीर की उलट
बाँसियों से कम नहीं, जो कभी भोले मानस पर धर्म की छाप छोड़ती है, तो कभी योगी को शिव मार्ग पर ला खड़ा करती है|” अर्थात बुद्धेश
ने पूछा एक स्निग्ध स्मित फैलाते महा पुनः बोल उठा – “वह बिल्व वृक्ष एक मानव काया
के अतिरिक्त कुछ भी नहीं एवं शिकारी ही मानव जीवात्मा है| इसी वर्क्ष के मूल में अर्थात
मस्तिष्क में शिव प्राण प्रतिष्ठित है| “
बुद्धेश, महा को अवाक् देख रहा था एवं महा अब भी धारा प्रवाह बोल रहा था – “ नित्य
ही इन्द्रियों के तीरों से जीवात्मा रूपी शिकारी व“ नित्य ही इन्द्रियों के तीरों से
जीवात्मा रूपी शिकारी विषय रूपी प्राणियों का शिकार करता है एवं जब वह थककर स्वयं के
समस्त कर्मो को शिव के चरणों में समर्पित करता
है अर्थात काया रूपी बिल्व वृक्ष के सत, रज एवं तम गुण रूपी त्रिपत्र को, जब वह गुणातीत
शिव के मस्तक पर अर्पित करता है, तो उसी घड़ी सम्पूर्ण मन को त्याग वह पशु, पशुपति अर्थात
शिव के पद पर शोभित होता शिवलॊक को प्राप्त होता है|”
-उपरोक्त (शिवरात्रि) लेखांश मनोज ठक्कर एवं रश्मि छाजेड द्वारा रचित प्रसिद्ध उपन्यास
“काशी मरणान्मुक्ति” से लिया गया है|
|