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संतुलन
जीवन में वास्तविक वृद्धि के लिए या जीवन के परिपूर्ण आनंद के लिए संतुलन आवश्यक है|
इस पश्चिमी सभ्यता के दौर में हमें वो करना भी होता है, कभी समन्वय (अनुकुलन) के माध्यम
से तो, कभी त्याग के माध्यम से| परन्तु उसके अन्त में एक दुःख के घेरे में होता है
क्योंकि शायद वह हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होता है या हमारी भावनात्मक रिक्तताओं
को पूर्ण करने हेतु होता है| भौतिक साधन एवं भावनात्मक रिक्तता दोनों ही ऐसी संवेदनाएँ
है जिनके लिए लालसा कभी समाप्त नहीं होती है| अगर इसके विपरित स्थिति को समझा जाए तो
शायद उत्तर 'अनासक्ति' के रूप में मिलता है| पर क्या भौतिकता और भावनाओं से आसक्त हो,
हिमालय पर बसना हमारे लिए उपाय है?
“काशी मरणान्मुक्ति” के रचनाकार श्री मनोज जी ठक्कर भी संतुलन पर ही जोर देते है, पर
उनके लिए संतुलन भौतिक आवश्यकताओं और भावनात्मक रिक्तताओं के मध्य न होते हुए , भौतिकवाद
एवं अध्यात्मवाद के मध्य होता है| उनके अनुसार भौतिक साधन एवं साधक के मध्य आत्मिक
समन्वय की आवश्यकता है|
यही संतुलन हमें हमारे दैनिक कार्यों एवं इच्छाओं के दमन के कारण उत्पल तनाव को कम
करता है और चित्त शुद्धता एवं व्यव्हार में नम्रता लाता है| शांत मन ही सही निर्णय
एवं इच्छाओं/ कामनाओं पर विजय पा सकता है|
मनोज ठक्कर एवं रश्मि छाजेड द्वारा रचित “काशी मरणान्मुक्ति” संतुलन के कई नए विमाओं
को समझाती है,
"चाहे सृजन हो या विनाश, दोनों ऐसे पूर्ण हैं कि पूर्ण में से पूर्ण घटा लेने पर भी
सदैव ही पूर्ण रहते है| तो फिर भला परमात्मा के विनाश कार्य को पूर्णता प्रदान करने
वाला महा कैसे अपूर्ण रह सकता था?"
"परमात्मा के सृजन की शक्ति के सामने संहार की शक्ति को किसी भी तरह अपूर्ण नहीं आँका
जा सकता| यदि संहार, सर्जन के समान महत्त्वपूर्ण नहीं होता तो परमात्मा का वर्तुल भी
पूरा नहीं होता| अर्थात फिर यह कहना असंभव होता कि परमात्मा ऐसा पूर्ण है जिसमें से
पूर्ण को घटा लेने पर भी वह सदैव पूर्ण ही रहता है|"
“सूक्ष्मता से देखा जाए तो जिस द्रुत गति से परमात्मा सर्जन को अनंतता की ओर प्रशस्त
करता है, संहार भी उसी गति से सृजन के गले में गलबाहीं डाल परस्पर ही चलता है| ये दोनों
ही परमात्मा की कला का रूप धर सृष्टि के संतुलन को साधते है|”
".....शिव के परिवार पर दृष्टि डालने से ही यह वर्तु".....शिव के परिवार पर दृष्टि
डालने से ही यह वर्तुल सहज दृष्टिगोचर हो जाता है| सृष्टि एवं प्रलय के संतुलन की परिभाषा
उनके परिवार के सदस्यों के वाहन पर दृष्टि डालने मात्र से ही स्वतः परिभाषित हो जाती
है| गणेशजी का वाहन मूषक है, तो कार्तिकेय मयूर पर सवार विचरते है एवं नाग शिव की शोभा
बढाता है| कौन कहता है की नाग, मूषक को निगल जाता है एवं मयूर, नाग को स्वयं के आहार
के रूप मैं ग्रहण करता है? यह मात्र तो शिव की लीला है कि स्वभाव से विपरीत होने पर
भी सभी वाहन रूपी जीव एक ही परिवार को संग ले उनके साथ विचरते हैं| एक ओर माँ भवानी,
सिंह पर सवार है तो उन्हीं के साथ सदैव भ्रमण करते भोलेनाथ, वृषभ कि सवारी करते शोभायमान
होते हैं| कहाँ सिंह एवं कहाँ नंदी? फिर भी दोनों का शिवशक्ति के समान एकात्म!
विपरीत एवं वैरी स्वाभाव होने के पश्चात् भी यों सब जीवों का एक साथ विचरना शिव की
इस सृजन लीला को दर्शाता है, तो महाश्मशान में स्थित संतुलन को साधते शिव इसकी दूसरी
अति पर खप्पर को स्वयं का भोज्य पात्र बना उसमें आहार ग्रहण करते हैं| सृजन, संतुलन
एवं संहार रूपी त्रिगुण एक दूसरे में लीन, एक ही परिवार का अंश है एवं एक-दूसरे में
पूर्णतः बसे होकर भी जब ये दृष्टि के समक्ष स्वयं का एकात्म उघाड़ते हैं, तो उसी घडी
ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश साक्षात् महागुरु दत्तात्रेय का रूप धर, परमार्थ तत्त्व का
उपदेश देते हैं|.."
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