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महाशिवरात्रि का अंतर्दर्शन
हम सब शिवरात्रि का व्रत एक संस्कार के रूप में हर वर्ष फरवरी माह में कृष्ण चतुर्थी
के दिवस को करते आ रहे है| इस उपवास को हम में से कई एक परम्परा एवं बाबा भोलेनाथ की
कृपा द्रष्टि हेतु करते आ रहे है| मैं भी इस शिव
कृपा से अनजान, अनजाने में इस व्रत को करता आ रहा था पर इस व्रत को करने का सुंदर दर्शन
मुझे पिछले वर्ष एक रोचक एवं अनुभूतियों से भरी पुस्तक को पढने पर हुआ| लेखकद्वय श्री
मनोज ठक्कर एवं रश्मि छाजेड द्वारा रचित पुस्तक “काशी मरणान्मुक्ति” वास्तव में काशी
और शिव शक्ति के कई एसे साम्य को दर्शाती है कि आप अध्यात्मिक आनंद से सरोबार हो जाते
है| इस पुस्तक के एक अध्याय का एक रोचक अंश शिव रात्रि के उपवास का अर्थ समझाता है
जिसका उल्लेख पुस्तक में कुछ इस प्रकार किया है:
उपवास का वास्तविक अर्थ
“मन, बुद“मन, बुद्धि एवं इन्द्रियाँ नित्य ही बाह्य आहार ग्रहण करती है| संस्कार मन
का सुक्ष्म आहार है एवं पंचज्ञानेंद्रिया रूप, रस, स्पर्श, गंध एवं श्रवण रूपी स्थूल
आहार ग्रहण करती है| किसी के निकट वास करना ही उपवास है| “जब जीव,
शिव के समीप वास करता है तो मन एवं प्राण के समस्त रंग उनके सम्मुख धूमिल पड़
जाते है| इस घड़ी जीव किसी भी सूक्ष्म अथवा स्थूल आहार को ग्रहण नहीं करता, अर्थात इसी
को आहार तिव्रत्ति कहते हैं| “क्या कभी सोचा कि महाशिवरात्रि व्रत, रात्रि में ही क्यों
होता हैं|
इसका एकदम सच्चा उतर मिलता है कि -
“दिवस, कारण से कार्य के मार्ग को प्रशस्त करता है, तो रात्रि पुनः जीव को कार्य से
घसीटती कारण के द्वार पर ला पटकती है| इसलिए रात्रिकाल ही
शिवरात्रि के उपवास का अनुकूल काल है, जहाँ अंधकार के साम्राज्य में कार्य-जिव,
कारण-शिव से एकाकार होने के लिए लालायित हो मन, प्राण एवं इन्द्रियों के समस्त आहारों
को स्वतः ही त्याग देता है|”
“महाशिवरात्रि कृष्ण चतुर्थी के दिवस ही क्यों पड़ती है? इसके रहस्य को भी जान लो परन्तु
इसे जानने से पूर्व तुम अमावस्या को भी समझ लो| सूर्य परमात्मा को प्रतिबिंबित करता
है, तो चंद्रमा जीवात्मा को| सष्टि के विराट एकांत में एकाकार शिव एवं जीव में जब कोई
भेद नहीं रहता तो भला इस अभेद में कौन, किसकी आराधना में लीन होगा? अमावस्या में ही
सूर्य और चन्द्र साथ होते हैं जहाँ शिव और जीव में कोई भेद नहीं होता| अतः चतुर्थी
की रात्रि में समस्त सुक्ष्म एवं स्थूल आहारों को त्यागकर जीव शनै:-शनै: शिव में डूबने
लगता है, फिर भी एक महीन भेद रेखा जीव की ओर से शेष रह ही जाती है| अतः अमावस्या के
दिवस उस रेखा को लाँघकर जीव, शिव से एक हो जाता है एवं इसी को व्रत का पारणा कहते हैं|”
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